वासुदेव बलवंत फड़के (4 नवम्बर 1845 – 17 फ़रवरी 1883) भारत के स्वतंत्रता संग्राम के क्रांतिकारी थे, जिन्हें ‘आदि क्रांतिकारी’ कहा जाता है। उन्होंने ब्रिटिश काल के दौरान किसानों की दुखद स्थिति को देखकर अपनी आँखों के सामने एक सपना देखा, जिसमें भारत ‘स्वराज’ का महत्वपूर्ण स्थान रखता है।
1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद जब भारत की आज़ादी की लड़ाई आम जनता के हाथों में आने लगी थी तो इसके सबसे पहले नायकों में से एक थे वासुदेव बलवंत फड़के। फड़के वे वीर थे जिन्होंने गुलामी की जंजीरों को उखाड़ फेंकने के लिए गरीब किसानों, मज़दूटों और युवाओं की एक पूटी फौज खड़ी कर दी और सालों तक अंग्रेज़ों की नाक में दम किए रखा।
वासुदेव बलवंत फड़के
वासुदेव फड़के अंग्रेजी सरकार में क्लर्क की नौकरी करते थे। एक दिन उनकी माँ काफी बीमार थी। वह मरने से पहले अपने बेटे से मिलना चाहती थी लेकिन अंग्रेज़ अफसर ने फड़के को छुट्टी देने से मना कर दिया। वे अगले दिन बिना छुट्टी के घर चले गए लेकिन इतनी देर हो चुकी थी कि अंतिम वक्त में भी वे अपनी माँ से न मिल पाए। इस घटना के बाद उन्हें समझ में आया कि गुलामी क्या होती है और उन्होंने प्रण लिया कि किसी भी कीमत पर इस गुलामी से मुक्ति लेकर रहेंगे।

उन्होंने 300 ऐसे युवाओं की आर्मी तैयार की, जो देश पर जान न्यौछावर करने को तैयार थे। वे अपने दल के साथ अकाल से पीड़ित गाँवों में जाकर वहाँ किसानों की लिस्ट बनाते। फिर ब्रिटिश सरकार के पैसों के कलेक्शन सेंटर की सूची बनाते और स्थानीय हथियारों से लैस अपनी सेना के साथ उन सेंटर्स पर हमला कर उसे लूट लेते थे। अपनी सेना के खर्च का पैसा निकालकर टॉबिन हुड की तरह वासुदेव सारा पैसा गरीबों में बाँट दिया करते थे। अंग्रेज़ी सरकार की नज़रों में वासुदेव बलवंत फड़के डकैत और अंग्रेज़ों का शोषण झेल रहे देशवासियों के लिए वे देवता बन चुके थे।
पूना पर कब्जा वासुदेव फड़के
फड़के ने कभी पेशवाओं की राजधानी रहे शहर पूना पर भी कब्जा कर लिया। कई दिनों तक अंग्रेज़ी फौज उन्हें पूना से हटा न सकी। ये खबर इंग्लैंड तक जा पहुँची तो अंग्रेज़ों ने उसके सिर पर एक बड़ी रकम का ऐलान कर दिया। एक गद्दार इस इनाम के लालच में आ गया और उसने फड़के की मुखबिरी कर दी। फड़के गिरफ्तार हुए लेकिन उनके खिलाफ कोर्ट में एक भी गवाह नहीं मिल पाया। फड़के को लूट के पैसे का पूटा हिसाब डायरी में लिखने की आदत थी। वे डायरी किसी तरह एक अंग्रेज़ अधिकारी के हत्थे चढ़ गई और अंग्रेज़ भी फड़के के कारनामे पढ़कर दंग रह गए। जिसे अंग्रेज़ सिर्फ एक डाकू समझ रहे थे, वह तो अंग्रेज़ों को भारत से ही उखाड़ फेंकने की योजना में जुटा था।

फड़के को आजीवन कारावास की सजा सुनाई
फड़के को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई लेकिन वे जेल से भाग निकले। कुछ समय बाद अंग्रेज़ी पुलिस ने उन्हें दोबारा गिरफ्तार कर लिया। पकड़े जाने के बाद उन्होंने जेल में भूख हड़ताल शुरू कर दी। इसी भूख हड़ताल के कारण वासुदेव बलवंत फड़के ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। कौन-सा जुनून था देशभक्ति का फड़के में, जो इतनी लंबी भूख हड़ताल चलने के बाद भी उन्हें मौत का डर छू तक नहीं पाया और देश प्रेम में आखिर उन्होंने अपनी जान न्योछावर कर दी।
वासुदेव को कुश्ती और घुड़सवारी का शौक था
फड़के की आर्मी भी उन लोगों की जो समाज के हाशिए पर थे, भील, डांगर, कोली, रामोशी आदि जातियों के युवाओं को मिलाकर खड़ी की गई ये आर्मी. शुरू से ही वासुदेव को कुश्ती और घुड़सवारी का शौक था, यहां तक कि स्कूल छोड़ दिया हालांकि बाद में वासुदेव ने एक क्लर्क की नौकरी कर ली, पुणे के मिलिट्री एकाउंट्स डिपार्टमेंट में.
गुलामी से मुक्ति का प्रण
बासुदेव की मां उसे उसके नाम का अर्थ बताती रहती थी, तो उसे लगता था कि उसकी भी अपनों के लिए कुछ जिम्मेदारी है, लेकिन एक दिन मां काफी बीमार थी, मरने से पहले अपने बेटे से मिलना चाहती थी, लेकिन अंग्रेज अफसर ने छुट्टी देने से मना कर दिया, वो अगले दिन बिना छुट्टी के घर चला गया लेकिन इतनी देर हो गई कि अंतिम वक्त में भी वो अपनी मां से ना मिल सका. पहली बार उसकी समझ में आया कि गुलामी क्या होती है और उसने इस गुलामी से मुक्ति का प्रण ले लिया, किसी भी कीमत पर.
क्रांति बिना खून बहाए नहीं
300 ऐसे युवाओं की आर्मी तैयार की, जो देश पर जान न्यौछावर करने को तैयार थे. उन्हें लगा अंग्रेजों से उन्हीं की भाषा में बात करनी होगी, क्रांति बिना खून बहाए नहीं होगी, भगत सिंह, आजाद, सावरकर और बिस्मिल से सालों पहले उन्होंने ये मान लिया था कि अंग्रेजों में ये खौफ भरना होगा कि इस देश में राज करोगे तो लाशें गिनने के लिए भी तैयार रहो. अब ये रोज का काम हो गया. अकाल से पीड़ित गांवों में किसानों की सूची बनाई जाती, फिर अंग्रेजी सरकार के पैसों के कलेक्शन सेंटर्स की सूची बनती, रेड होती, अपने खर्च का पैसा निकालकर रॉबिन हुड की तरह सारा पैसा गरीबों में बांट दिया जाता, हथियार अपने पास रख लिए जाते. अंग्रेजी सरकार ने वासुदेव बलवंत फड़के को डकैत घोषित कर दिया और गांव वालों ने देवता.

अंग्रेज अफसर रिचर्ड के सर पर पूरे 75000 रुपए का ऐलान
फड़के बड़े अंग्रेजी अधिकारियों की नजर में तब चढ़े जब उन्होंने कुछ दिनों के लिए कभी पेशवाओं की राजधानी रहे शहर पूना पर कब्जा कर लिया, कई दिनों तक अंग्रेजी फौज उसे हटा ना सकी. ये खबर इंग्लैंड तक जा पहुंची. अंग्रेजों ने उसके सर पर एक बड़ी रकम का ऐलान कर दिया, अलग अलग श्रोतों में ये इनाम की रकम कहीं पांच हजार तो कहीं पचास हजार मिलती है. लेकन इतना तय है कि किसी क्रांतिकारी पर इतना बड़ा इनाम उस वक्त तक नहीं रखा गया था. लेकिन इनाम से भी ज्यादा दिलचस्प था अगले ही दिन मुंबई की गलियों में फड़के के हस्ताक्षर वाले इश्तेहार लग जाना, जिसमें उसके सर पर इनाम का ऐलान करने वाले अंग्रेज अफसर रिचर्ड के सर पर पूरे 75000 रुपए का ऐलान किया गया था
वासुदेव बलवंत फड़के की मृत्यु
फड़के पर 3 जून 1879 को लंदन से प्रकाशित होने वाले ‘द टाइम्स ने एक लंबा सम्पादकीय प्रकाशित किया। इसने कृषि क्षेत्र में फैलती बेचैनी के समाधान के लिये सरकार को अपनी भू निर्धारण नीतियां संशोधित करने की सलाह दी। अंग्रेज, हालांकि अपनी पकड़ मज़बूत बना रहे थे। फड़के का अल्पकालिक केरियर लगभग पूरा हो चुका था। वह आंध्रप्रदेश के कुरनूत जनपद में स्थित ज्योतिर्लिंग श्री मौत मल्लिकार्जुन महादेव मंदिर जाने के लिये महाराष्ट्र से भाग गए। 25 अप्रैल 1879 को समाप्त अपनी आत्मकथा के दूसरे भाग में उन्होंने अपनी असफलता के लिये समक्षा भारतीयों से क्षमा याचना की। फड़के इस पवित्र स्थान में, जहां उनके आदर्श छत्रपति शिवाजी महाराज भी एक बार आए थे, अपने जीवन का बलिदान करना चाहते थे लेकिन पुजारी ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया।
उन्होंने रोहिल्ला, सिक्खों और निज़ाम की सेना में कार्यरत अरबों के साथ मिलकर एक नई क्रांति का पुनर्गठन करने की कोशिश की। उन्होंने भारत के विभित्र भागों में अपने संदेशवाहक भेजे। किंतु भाग्य को उनकी योजनाओं की सफलता स्वीकार नहीं थी। देवार नवदगी नामक गांव में 20 जुलाई 1879 को उनकी गिरफ्तारी के साथ यह समाप्त हुआ।
पुणे की अदालत में चले मुकदमे के बाद उन्हें आजीवन कारावास की सजा मिली। इस अवसर पर उनके समर्थन में आए लोगों ने विषाद एवं गर्व से भरे कर्णभेदी नारे लगाए। बंदीगृह में उको तपेदिक से पीड़ित पाया गया जिसका उन दिनों कोई इलाज नहीं था। फड़के ने आजीवन कारावास की बजाय मृत्यु को चुना। एक स्वतंत्रता सेनानी से इससे अधिक और क्या अपेक्षा की जा सकती है? 17 फरवरी 1883 की 37 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हुई। बाद में महाराष्ट्र में इसी वर्ष वीर सावरकर का जन्म हुआ।
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